जल-प्रबंधन

बूँद - बूँद सिंचाई पद्धति/ड्रिप इरिगेश्न सिस्टम

 

परिचय: सिंचाई की दृष्टि से राजस्थान भू-गर्भीय जल की कमी वाला राज्य है। यहाँ पर राष्ट्रीय जल संसाधन का मात्र एक प्रतिशत जल ही उपलब्ध है। पिछले कई वर्षो से अधिकांश जिलों से औसत से भी कम वर्षा होने के कारण भू-जल स्तर निरन्तर कम हो रहा है। किसान भाईयों द्वारा सिंचाई की नई विधियाँ नहीं अपनाने के कारण उपलब्ध जल का भी समूचित उपयोग नहीं हो पा रहा है इससे ना तो वांछित मात्रा में उत्पादन हो रहा है और ना ही भूमि की उर्वरा शक्ति बन पा रही है।

1. सतही सिंचाई विधियाँ: यहाँ चार परम्परागत सिंचाई की विधियाँ है, जिसमें बाढकृत, सिंचाई, कूड सिंचाई, क्यारी सिंचाई एवं थाला सिंचाई। इनमें जल भू-सतह पर खुला सतह बहाव द्वारा दिया जाता है और क्षेत्र में पानी का गुरूत्वाकर्षण के द्वारा बहता है। उक्त सभी तरीकों से पानी देने पर पानी का वाष्पीकरण एवं अन्तस्त्राण द्वारा नुकसान होता है। जल आपूर्ति दक्षता इस विधि में दाब सिंचाई विधि से तुलनात्मक रूप से कम होती है।

2. दाबीय सिंचाई विधियाँ: इस विधि के द्वारा पानी पाईपों के माध्यम से दाब द्वारा भेजा जाता है और मृदा सतह पर या फसल के ऊपर बूँदों के रूप में दिया जाता है। फव्वारा सिंचाई विधि की जल आपूर्ति क्षमता 60 से 70 प्रतिशत होती है और बूँद – बूँद सिंचाई (ड्रिप इरिगेशन) विधि से 95 प्रतिशत होती है।

अ). बूँद – बूँद सिंचाई – इसके अन्र्तगत पौधों को एक अन्तराल पर थोड़ी मात्रा में उनकी जड़ों के पास पानी दिया जाता है। यह पानी पी.वी.सी. मुख्य लाईन, उप लाईन, वेन्चरी, कन्ट्रोल वाॅल्व, लैटरल्स और ड्रिपर्स से होते हुए पौधों तक पहुँचता है। इस तंत्र में पानी धीरे-धीरे पौधे के उपयोग प्रयोग से समानता रखते हुए, मृदा नमी को इच्छित विस्तार में रखते हुए उपलब्ध नमी को पादप वृद्धि के लिए दिया जाता है। पानी बूँद- बूँद करके बहुत धीमी गति से एक घण्टे में कुछ ही लीटर दिया जाता है। यह तंत्र परम्परागत विधियों से होने वाले जल नुकसान जैसे कि अन्तस्त्राव सतह बहाव एवं वाष्पीकरण को कम करता है।

ब). क्षेत्र धारिता (फिल्ड कैपेसिटी) – मृदा की क्षेत्र धारिता, गुरूत्वाकर्षण के द्वारा पानी के विकास के पश्चात् शेष मृदा नमी को कहा जाता है। इस समय नमी स्थिर हो जाती है। दूसरे शब्दों में गुरूत्वाकर्षण बल के विरूद्ध मृदा में बची नमी की मात्रा को क्षेत्र धारिता कहते है।स). पूर्णतया मुरझान बिन्दु (परमानेट विल्टिंग पाॅइन्ट) – यह वह अवस्था है जिसमें कि पौधे को वाष्पोसर्जन के लिए प्रर्याप्त पानी नहीं होता है और पौधा तब तक मुरझाया हुआ होता है जब तक उसमें पानी नही दिया जाता है।

3. बूँद – बूँद सिंचाई पद्धति की विषेषताऐं –

पानी सीधे पौधों की जड़ों में दिया जाता है।
पानी कम अन्तराल एवं निश्चित समय तक दिया जाता है।
विशेष कम दबाव पर पानी दिया जाता है।
जैविक टाॅनिक भी पानी के साथ दिये जा सकते है।

4. ड्रिप सिंचाई तंत्र के लाभ –

उच्च जल उपयोग दक्षता – 70 से 90 प्रतिशत तक पानी की तथा 90 प्रतिशत तक श्रम मूल्य की बचत होती है।
उचित मृदा-वायु-जल संबन्ध बनाये रखती है, पादप ओज एवं फसल उपज को बढ़ाती है।
क्षारीय पानी का उपयोग सम्भव है, यह जड़ क्षेत्र में लवण सान्द्रता को कम करता है।
प्रत्येक पौधे को पानी एवं जैविक आदान एक साथ दिया जा सकता है।
मृदा नमी को हमेशा क्षेत्र धारिता स्तर तक बनाया जा सकता है।
ड्रिपर्स के पास वाला सीमित क्षेत्र ही गीला होने के कारण खरपतवारों के विकास को रोका जा सकता है।
भूमि का समतल होना जरूरी नही, उबड़-खाबड़ जमीन पर भी इस विधि से सिंचाई की जा सकती है।
इस विधि में परम्परागत विधियों की अपेक्षा कम वाष्पीकरण नुकसान होता है।
कृषक कार्यो से कोई बांधा नही होती, कीट एवं बीमारियाँ कम तथा श्रम की भी कम जरूरत पड़ती है।
सिंचाई अनुप्रयोग दर मृदा प्रकार के आधार पर समायोजित की जा सकती है।
फव्वारा और अन्य परम्परागत सिंचाई विधियों की अपेक्षा इस विधि में ऊर्जा का उपयोग तुलनात्मक रूप से कम होता है।
पौधों में उच्च जीवित दर 90 प्रतिशत तक पाई जाती है तथा स्वस्थ पौधे तैयार होते है।
भूमि में वायु एवं जल का सही अनुपात होने से प्रति पौधे का प्रति इकाई उत्पादन अधिक व अच्छी गुणवत्ता वाला होता है।
भूमि संरक्षण में भी सहायता मिलती है।
अन्तः शेष क्रियाऐं सफलता पूर्वक की जा सकती है।
फसल का पकाऊँ शीघ्र होता है।
एक या दो फसल में लागत वसूल और फिर फायदा ही फायदा
कम पानी वाले क्षेत्र में भी उद्यानिकी विकास सम्भव है।
5. ड्रिप सिंचाई तंत्र के घटक –

6. फिल्टर – फिल्टर का प्रयोग विभिन्न प्रकार की अशुद्धियों जैसे कि फफूँद, मृदाकण, बालू, रसायन एवं उर्वरकों के अवशेष इत्यादि को साफ करने एवं हटाने में किया जाता है, ताकि इमिटर्स को बन्द होने से बचाया जा सकें। फिल्टर सिंचाई तन्त्र के शुरू में लगाये जाते है। जल के गुण एवं जल के स्त्रोत के आधार पर विभिन्न प्रकार के फिल्टरों का प्रयोग किया जाता है।

प्राइमरी फिल्टर सैकेण्डरी फिल्टर
8. फिल्टर के प्रकार – 1.सेण्ड फिल्टर 1.स्क्रीन फिल्टर
2.हाइड्रो साइक्लोन फिल्टर 2.डिस्क फिल्टर
9. सेण्ड फिल्टर – यह धातु का सिलेंण्डर टैंक होता है, जिसमें फिल्टर माध्यम के रूप में बालू होती है। यह 2 मि.मी. से 4 मि.मी. व्यास के आकार की सिलिका बालू होती है। यह फिल्टर मुख्य रूप से खुले कुआँ, तालाब, नदी आदि में प्रयोग किया जाता है। ये फिल्टर कार्बनिक और अकार्बनिक निलम्बित ठोसों के विरूद्ध प्रभावी होते है। गन्दगी एवं फफूँद रोक दी जाती है और फिल्टर इकाई में बालू माध्यम के अन्दर इकट्ठी कर दी जाती है। आकार के आधार पर सेण्ड फिल्टर दो प्रकार के होते है, जैसे सिंगल लेयर फिल्टर और मल्टी लेयर फिल्टर। सिंगल लेयर फिल्टर में सामान आकार की बालू और मल्टी लेयर फिल्टर में विभिन्न आकार की बालू होती है। आकृति के आधार पर सेण्ड फिल्टर, होरिजोन्टल और वर्टीकल सेण्ड फिल्टर दो प्रकार के होते है।
हरित गृह में खेती के लिए आमतौर पर मल्टी लेयर सेण्ड फिल्टर का उपयोग किया जाता है। सेण्ड फिल्टर की क्षमता हमेशा घन प्रति घण्टे में दी जाती है। पानी की जरूरत के अनुसार फिल्टर क्षमता का चुनाव किया जाता है। बाजार में विभिन्न क्षमता के सेण्ड फिल्टर उपलब्ध जो 15,25,40, से 50 घन मीटर प्रति घण्टे की क्षमता वाले होते है।
10. हाईड्रोसाइक्लोन फिल्टर – यह फिल्टर सेन्ट्रीफ्यूगल फिल्टर या सेण्ड सेपेरेटर के नाम से जाने जाते है। उध्र्वाधर गति और अभिकेन्द्रीय बल के आधार पर ये फिल्टर निलम्बित पदार्थो को हटाते है। इस प्रकार के फिल्टर तभी प्रभावी होते है जब ठोस कण जल की अपेक्षा उच्च घनत्व वाले होते है। ये फिल्टर पानी स्त्रोत के पास ही स्थापित किये जाते है। ये बड़ी मात्रा में बालू और कंकड़ उठाये गये पानी से अलग करते है। हाईड्रसाइक्लोन के विशेष टैंक के पैंदे में उठाये गये बालू एवं कंकड़ जमा हो जाते है। बाजार में 15,25,40 और 50 घन मीटर प्रति घण्टे की क्षमता वाले हाईड्रसाइक्लोन फिल्टर उपलब्ध है।
11. स्क्रीन फिल्टर – यह फिल्टर एक स्क्रीन रखता है जो बेलनाकार रूप में लगी होती है और यह धातु या प्लास्टिक पदार्थ की बनी होती है। स्क्रीन पर छिद्रों का आकार मि.मी. माइक्रोन या मेश के रूप में तात्पर्य एक वर्ग इंच क्षेत्र में पाये जाने वाले छिद्रों से है। सामान्यतः 100-200 मेश की जाली ड्रिप सिंचाई के लिये चुनी जाती है। स्क्रीन फिल्टर प्रायः सेण्ड फिल्टर के नीचे वाली धारा में लगाया जाता है और इसे सेण्ड फिल्टर के साथ या बिना ही जल की किस्म के आधार पर लगाया जाता है। जब पानी फिल्टर से गुजरता है तो निश्चितम मात्रा में गन्दगी फिल्टर के ऊपर जमा होकर बूंदों के दाब को बढा देती है। इस अवस्था में स्क्रीन की सफाई जरूरी हो जाती है। स्क्रीन की सफाई हाथ से या मशीन द्वारा धोकर की जाती है। बाजार में विभिन्न क्षमता 10,15 और 25 घन मीटर प्रति घण्टे की रफ्तार वाले स्क्रीन फिल्टर उपलब्ध है।
12. डिस्क फिल्टर – फिल्टर प्लास्टिक की डिस्क से बना होता है, जो कि चारो और टेलिस्कोपिक कोर से लिपटा होता है। पानी फिल्टर से बाहर अन्दर की ओर से गुजरता है। फिल्टर दो अवस्थाओं से प्रभावित होता है। बाहर का बड़ा क्षेत्र जो कि बड़े कणों को छानता है तथा अन्दर रखे खांचे जो डिस्क के अन्दर बने होते है महिन कणों को रोकते है। फिल्टर को आसानी से खोलकर साफ किया जा सकता है। डिस्क को अलग-अलग करके पानी से अच्छी तरह साफ किया जा सकता है। बाजार में विभिन्न क्षमता वाले 15,25,40,50 और 60 घन मीटर प्रति घण्टे की दर वाले डिस्क फिल्टर उपलब्ध है।
13. वाल्व सयंत्र
नाॅन रिटर्न वाल्व – जब पम्प को बन्द किया जाता है, तो बन्द करते ही पाइप में स्थित पाइप में स्थित पानी पम्प की ओर दाब डालता है, जिससे पम्प को नुकसान हो सकता है, इस नुकसान से बचाने का कार्य यही वाल्व करता है।
एयर रिलीज वाल्व – यह वाल्व तंत्र के सबसे ऊँचे भाग में लगाया जाता है, ताकि तंत्र की शुरूआत में वायु की वजह से होने वाली समस्या से बचा जा सके।
कन्ट्रोल वाल्व – इनका प्रयोग पी.वी.सी. पाइपों में बहने वाले पानी को नियन्त्रित करने के लिए किया जाता है।
फ्लष वाल्व – ये वाल्व उप मुख्य नाली के फ्लश सफाई हेतु इसके अन्तिम सिरे पर लगे होते है इनके द्वारा सिरे पर जीम गन्दगी मिट्टी के कणों को साफ किया जाता है।
बाईपास वाल्व – फिल्टर इकाई के पहले स्थापित किया जाता है। जिससे पानी की आपूर्ति नियमित की जा सके और दाब भी नियमित किया जा सके व जल का अयन्त्र उपयोग हो सके।
14. मुख्य लाइन और उप मुख्य लाइन – मुख्य लाइन और उप मुख्य लाइन पानी को फिल्टर तन्त्र से इमिटर्स तक भेजती है। ये सामान्यत दृढ़ पी.वी.सी. और एच.डी.पी.ई. की बनी होती है जो कि कोरोजन प्रभाव व क्लोगिंग से बचाती है।
15. लैटरल – लैटरल कम व्यास के लचीले पाइप/नलिकाएँ होती है, जो कम घनत्व वाले पोली इथायलिन की बनी होती है। ये व्यास में 12 मि.मी., 16 मि.मी. के होते है ये रंग में काले होते है ताकि इनके अन्दर कवक की वृद्धि नही हो और पराबैंगनी किरणों के दुष्प्रभाव को रोकती है। ये चार किग्रा. प्रति वर्ग से.मी. तक का दाब सहन कर सकती है। वे उप मुख्य लाइन से जोड़ी जाती है।
16. ड्रिपर्स – ड्रिपर्स को इमिटर्स के नाम से भी जाना जाता है, जो कि पानी को लैटरल से पौधे के जड़ क्षेत्र के पास डालता है। ड्रिपर्स लैटरल पर या इनके अन्दर लगाये जाते है। यहां पर दो प्रकार के लैटरल, उनकी स्थिति के अनुसार होते है।
अ) आॅनलाइन ड्रिपर्स ब) इनलाइन ड्रिपर्स
अ) आॅनलाइन ड्रिपर्स – इस विधि में मृदा के प्रकार एवं फसल अन्तरण के आधार पर लैटरल के ऊपर ड्रिपर्स लगाये जाते है। यह मुख्यतया सतही ड्रिप यन्त्र में प्रयोग किये जाते है। ये मुख्य रूप से अधिक अन्तरण वाली उद्यानिकी फसलों एवं मौसमी फसलों में प्रयोग किये जाते है। इसमें जल की निस्सारण (डिस्चार्ज) दर 2,4 और 8 लीटर प्रति घण्टा।
ब) इनलाइन ड्रिपर्स – इस विधि में ड्रिपर्स को फैक्टरी में निर्माण के समय ही लैटरल के अन्दर रखा जाता है। दो ड्रिपर्स के बीच का स्थान मृदा के प्रकार एवं फसल अन्तरण पर निर्भर करता है। मुख्यतः यह सघन रूप से पंक्तियों में उगाई जाने वाली फसल एवं सब्जियों में प्रयोग किया जाता है।
अ) नाॅन प्रेषर काॅम्पैनसेटिंग ड्रिपर्स (एन.पी.सी.) – खुली खेती में मुख्य रूप से एन.पी.सी. ड्रिपर्स का प्रयोग किये जाते है। इस प्रकार के ड्रिपर्स में निस्सारण (डिस्चार्ज) बढ़ता है, जैसे-जैसे कार्यरत यंत्र का दाब बढ़ाते है। इस प्रकार के इमिटर्स समतल भूमि के लिए उपयुक्त है।
ब) प्रेषर काॅम्पैनसेटिंग ड्रिपर्स (पी.सी.) – पी.सी. ड्रिपर्स इस प्रकार से बनाये जाते है कि ये पानी एक नियमित दर से विस्तृत कार्यरत दाब पर निस्सारित करते रहे। ज्यादातर दाब समायोजित ड्रिपर्स कम दाब पर ही सक्रिय हो जाते है। इस प्रकार ड्रिपर्स विशेष तौर पर ऊँचेें-नीचे क्षेत्रों (न्दकनसंजपवद स्ंदक) के लिए उपयोगी है।
क) नोड्रेन डिपर्स (एन.डी.) – इस प्रकार के ड्रिपर्स विशेषतया मृदा रहित कृषि में प्रयोग किये जाते है। शीघ्र ही दाब शून्य हो जाता है।
ख) स्टेक डिपर्स – इस प्रकार के ड्रिपर्स का प्रयोग गमले वाले पौधों के लिए किया जाता है, जहाँ स्टेक को सीधा ही गमले में डाल दिया जाता है। इसमें एक छिद्र होता है जिससे पानी धीरे-धीरे आता रहता है।
17. दाब मापक (प्रेष गेज) – दाब ड्रिप सिंचाई तंत्र में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। प्रेशर/दाब मापक से मापा जाता है। उच्च दाब पर पाइप लाइनों को नुकसान हो सकता है तथा कम दाब पर ड्रिप तंत्र कार्य नही करता है। यह 1.0 कि.ग्रा. से 2.0 कि.ग्रा. प्रति वर्ग मीटर दाब पर कार्यशील होता है।
अ) दाब मापक स्थिति – यह फिल्टर के अन्तः एवं बहि बहाव सिरों पर लगाये जाते है। यदि दाब मापक दोनों सिरों पर समान दाब दर्शाता है तो इससे यह अर्थ निकलता है कि फिल्टर सही कार्य कर रहा है, और यदि दाब मापक दोनों जगह अलग-अलग दाब बता रहे है तो इसका अर्थ है कि फिल्टर में गन्दगी, या बालू या फफूँद जम गई है। अतः इसे साफ करने की जरूरत है।
ब) मुख्य लाइन पर दाब मापक – मुख्य लाइन के शुरूआती शीर्ष पर दाब मापक लगाया जाता है जिससे मुख्य लाइन का दाब देखा जा सके कि यह सही है या नही ।
स) लैटरल में दाब मापक – इस दाब मापक द्वारा प्रारम्भिक लैटरल के सिरों पर और अन्तिम लैटरल लाईन के सिरों पर लैटरल लाईन में दाब अन्तरण को परखने या देखने के लिये लगाया जाता है। यदि दाब अधिक दर्शाता है तो इससे तात्पर्य है कि लैटरल लाईन को साफ करने की जरूरत है।
18. ड्रिप सिंचाई तंत्र का रख-रखाव
अ) तंत्र की जाँच – जब ड्रिप सिंचाई तंत्र को चालु करे तब निम्न बातो को ध्यान रखें –
तंत्र को चलाने के लिए इच्छित दाब समायोजित करें।
लैटरल, सब मैन लाईनों को धोये।
स्क्रीन फिल्टर/डिस्क फिल्टर और सेण्ड फिल्टर को सिंचाई पूर्ण होने के पश्चात् साफ करें।
यदि ड्रिपर्स लवणों के जमाव के कारण बन्द हो जाते है, तो इनका रासायनिक उपचार करें।
तंत्र को चालु करने से पूर्व यह सुनिश्चित कर लेवें कि कम से कम एक सब मैन लाईन का वाॅल्व खुला होना चाहिए।
ब) रासायनिक उपचार (केमिकल ट्रीटमेंट) – ड्रिपर्स में रूकावट/बन्द होना कुछ घुलनशील लवणों जैसे कार्बोनेट, बाइकार्बोनेट, लौहा सल्फेट मैग्नीज, फफूँद, जीवाणु और धूल के इकट्ठा हो कर जमाव के कारण होता है। इन ड्रिपर्स की रूकावट या बन्द होने को पानी के रासायनिक उपचार द्वारा साफ किया जा सकता है। यहां रासायनिक उपचार द्वारा साफ किया जा सकता है। यहाँ रासायनिक उपचार की दो विधियाँ है – अम्ल उपचार क्लोरीन उपचार
अम्ल उपचार (एसिड ट्रीटमेंट) – जल विश्लेषण रिपोर्ट के अनुसार नाइट्रिक अम्ल ड्रिप तंत्र में प्रवाहित करे। अम्ल उपचार जब तक लैटरल लाईनों का चभ्4 तक प्राप्त किया जाता है, अपनाया जावें। चभ्4 प्राप्त करने के बाद तंत्र को 24 घण्टे के लिए बन्द कर दिया जाता है। 24 घण्टे के बाद फ्लश वाॅल्व को खोल देवें तथा तंत्र में धोवन हेतु सीधा पानी जाने देवें। धोवन पश्चात् अनुशंसित प्रक्रिया निम्न प्रकार है-
प्रयोग किये जाने वाले अम्ल चुनाव करें। (उपलब्धता, कीमत, मृदा सहिष्णुता, फसल, उपकरण इत्यादि के अनुसार)
जल के चभ् को कम करने के लिये आवश्यक अम्ल की मात्रा निश्चित करें।
अनेक इमिटटर्स/ड्रिपर्स के बहाव दर को देखे।
तंत्र अन्तः एवं बाद्दयबहाव दाब को देखें।
लैटरल के अन्तिम सिरों को उपचार से पूर्व धोयें, जिससे तंत्र में जमा तलछट सा हो जावें।
तंत्र में अम्ल मिला पानी भरे।
लैटरल के सिरों पर चभ् देखें जिससे यह पता चल सके कि पानी में अम्ल उचित मात्रा में मिलाई गयी है या नही।
तंत्र में इस अम्ल मिले पानी को 30-60 मिनट के लिये छोडे।
तंत्र को पूर्णतः धोयें।
प्रक्रिया नं. 5 से 8 तक पुनः दोहराये जब तक साफ पानी बाहर नही आने लगे।
समान इमिटर्स की बहाव दर को चैक करते रहे।
ब) क्लोरीन ट्रीटमेंट –
सिंचाई जल में विभिन्न प्रकार के क्लोरीन घटक डाले। क्लोरीन निम्नलिखित कार्य करती है।
यह ऐसा वातावरण पैदा कर देता है, कि कवक ज्यादा विकास ना कर सके।
यह एक आॅक्सीकारक का कार्य करता है, जिसके कारण कार्बनिक पदार्थ का विघटन होता है।
यह आयरन और मैग्नीज को आॅक्सीकृत करता है एवं अघुलनशील यौगिक बनाता है जो आसानी से हटाये जा सकते है।
अनुप्रयोग –
क्लोरीन का सतत् प्रयोग कम व एकरूप सान्द्रता के साथ सम्पूर्ण सिंचाई तंत्र में करे।
उच्च सान्द्रता का एक बार अथवा लगातार थोडी-थोडी देर में प्रयोग करे।
सिंचाई के दौरान 5 मिनट के लिये 50 पी.पी.एम. सान्द्रता वाली क्लोरीन देते रहे।
लागत व अनुदान प्रति हैक्टेयर –
बूँद-बूँद सिंचाई सयन्त्र की औसत इकाई लागत स्थापित सयन्त्र में प्रयुक्त उपकरणों, फसल एवं पौधों की दूरी के अनुसार महंगी तथा भिन्न-भिन्न होती है। विभाग द्वारा सामान्य तौर पर प्रयुक्त होने वाली साम्रगी के आधार कृषकों की मदद हेतु ही अनुदान दिया जाता है।

वर्षा जल संग्रहण, संरक्षण व सदुपयोग की विधि :-

उद्देष्य – इंच-इंच भूमि को सिंचित करने के निमित्त व्यर्थ बह रहे पानी की बूँन्द-बूँन्द को सहेज कर उसका सदुपयोग करना।

चिन्तन – भारतवर्ष में अधिकतर भू भाग पर जल की अत्यन्त कमी है, इसी कारण दिनोदिन सिंचित कृषि भूमि का रकबा धीरे धीरे कम रहा है वहीं कुछ क्षेत्र ऐसे है जहाँ पानी की उपलब्धता बहुत है, वहाँ जल के अपव्य्य पर किसी का ध्यान नहीं जाता है।
वैसे उक्त दोनों क्षेत्रों के लिये जल एक अमूल्य निधि है, इसके सरंक्षण हेतु केन्द्र द्वारा उपरोक्त उद्देश्य की पूर्ति हेतु खेत में विशेष ढलान बना कर खेत का पानी खेत में रोक कर, जगह जगह नालियाँ बना दी, उक्त मुख्य नाली को फिल्डर टैंक से होते हुए तालाब में जोड़ दिया गया है। तालाब की लँम्बाई 45 मीटर और चैड़ाई 50 मीटर व 3 मीटर गहराई है। इसमें प्लास्टिक शीट जो कि 300 माइक्रोन मोइक्रोन मोटी है। इसमें पूरे 6 हेक्टेªयर का पानी सहेजा जा रहा है, इस तालाब के बूँन्द-बूँन्द पानी का उपयोग हम ड्रिप इरिगेशन पद्धति से कर रहे है जिसकी वजह से इंच इंच भूमि सिंचित है।

अमृतम जलम प्रोजेक्ट

विषेष – अधिकतर किसान खेती में ड्रिप लाइन 4 लीटर प्रति घण्टें की डिस्चार्ज वाली लाइन लगाते है जबकि केन्द्र पर एक बूँन्द पर 1 लीटर प्रति घण्टा डिस्चार्ज की लाइन है। इस वजह से केन्द्र द्वारा प्रति दिन निम्नलिखित मात्रा में जल की बचत होती है-

केन्द्र पर तैयार बेड की लँम्बाई-225 फीट, और प्रति घण्टा डिस्चार्ज है।

1 मीटर 1 बेड पर कुल लेटरल लाईन – 2
1 लेटरल द्वारा जल की मात्रा – 225 लीटर
1 बेड पर कुल 2 लेटरल का जल डिस्चार्ज – 225ग2 = 450 लीटर
केन्द्र पर कुल बेड – 200
कुल जल उपयोग – 200ग450 = 90,000
लीटर यदि एक ड्रिपर से 4 लीटर प्रति घण्टा डिस्चार्ज होने पर
1 लेटरल द्वारा जल की मात्रा – 225ग4 = 900
1 बेड पर 2 लेटरल द्वारा कुल जल डिस्चार्ज – 1800 लीटर प्रति घण्टा
कुल 200 बेड पर 4 लीटर प्रति घण्टा की दर से प्रत्येक पर उपलब्ध 2 लेटरल से कुल जल
उपयोग – 200ग1800= 3,60,000 लीटर जल
केन्द्र द्वारा जल बचत: 3,60,000-90,000 = 2,70,000 लीटर प्रति दिन
वर्ष भर में जल बचत – 2,70,000ग365 = 9,85,50,000 लीटर